उत्तराखंड

जोशीमठ का दर्द (joshimath pain) : मैं देवभूमि का जोशीमठ हूँ, आज चाहता हूँ बोलना मगर विवश हूँ…पढ़िए इस दर्द-ए-दास्तां बयां करनी वाली पंक्ति को

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चमोली/ इंफो उत्तराखंड”

उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के धौलादेवी ब्लॉक के स्यूनी (खेती) गाँव के निवासी एवं वर्तमान में राजकीय पॉलिटेक्निक नैनीताल में तृतीय वर्ष के छात्र राकेश उप्रेती ने जोशीमठ भू धंसाव को लेकर इंफो उत्तराखंड को एक कविता पेश की है, जिसमें उन्होंने जोशीमठ भू धंसाव पर अपना दर्द-ए-दास्तां बयां की गई है।

जोशीमठ में लगातार हो रहे भू- धंसाव पर राकेश उप्रेती ने लिखी दर्द-ए-दास्तां बयां करने वाली कविता….. आप भी जरूर पढ़िए

…मैं देवभूमि का जोशीमठ हूँ,

आज चाहता हूँ बोलना मगर विवश हूँ…

यूँ तो मैं चूप ही रहा हूँ सदियों से,
मगर आज गला भर आया है कुछ कमीयों से,

भले मैं चूप हूँ आज,
मगर मुझमे पडी़ दरारें बोल रही है,

घर, मकान चीख़ रहें
जमींदोज होती दीवारें बोल रहीं है,

मेरे शहरी बेघर हुये जा रहे है,
ये मैं नहीं बोल रहा ढहती मिनारें बोल रही है,

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आधुनिकीकरण के तराजू में
मेरी सांसे तोल रही है,

सरकार से जाकर पूछे कोई,
विकास के कौन से दरवाजे खोल रही है,

आज मैं नहीं बोल रहा हूँ,
मुझे खोखला करती दरारें बोल रही है।

आज से नहीं बल्कि सदियों से,
मुझे धरती का स्वर्ग बताया जाता है,

मुझे पार करने के बाद ही,
बाबा बदरी को शीश नवाँया जाता है,

नृसिंह माता मेरे आंगन को सजाती है,
मेरे ही हेमकुंड में देवताओ को अर्ध्य चढाया जाता है,

आज समूची मेरी छाती डोल रही है,
मैं चूप हूँ मगर मुझमे पडी़ दरारें बोल रही है,

नहीं चाहिए तुम्हारी पक्की सडकें मुझे,
मेरे लिए मेरी दुर्गम पगडंडीयाँ अनमोल रही है,

रंग बदलती फूलों की घाटी के रास्ते मुझसे जाते है,
कोने कोने के सैलानी मुझमे सूकून पाते है,

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मेरी अलकनंदा तुम्हारे जीवन में रस घोल रही है,
मैं चूप हूँ मगर हिमवन की कोमल बौछारें बोल रही है,

मुझे बचालो कर लो मुझपर उपकार,
मेरी जमीन फट रही है दरक रहे है पहाड़,

मुझे निगल रहा है प्रतिपल होता भूधंसाव,
डर है तुम्हारी अनदेखी ना कर दे मुझे उजाड़,

ये तबाही मेरी संस्कृति और अस्मिता में जहर घोल रही है,
मैं चूप हूँ मगर मुझमे पडी़ दरारें बोल रही है,

तुम्हारे ये बाँध ये सड़कें ये विकास तुम्ही रख लो,
मुझे तो बस मेरा वही पुराना स्वर्ग लौटा दो,

ये सोलर पैनल, ये MODERN ELECTRICITY ले जाओ वापस, मुझे मेरा वही पुराना हिमाच्छादित अर्क़ लौटा दो,

तुम्हारी ये विष्णुगढ़ जल विघुत सुरंग परियोजना
मेरा दम घोंट रही है,

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मेरे बच्चे विस्थापन का दंश झेल रहे है,
उनकी करूण वेदना मेरी आत्मा को कचोट रही है,

मेरे बच्चे कहाँ जायेंगे,
जिनके लिए जान से बढकर माँ अनमोल रही है,

मैं जरूर चूप हूँ आज मगर,
मेरे बच्चों की पुकारें बोल रही,

मुझे बचालो के मेरे बच्चों के आशीष को पाओगे,
मेरे बच्चों को कुछ हुआ तो खुद भी अतीत हो जाओगे,
घर, मकान चीख़ रहें, जमींदोज होती दीवारें बोल रहीं है,

इंसान ही नहीं बल्कि हर एक प्राणी बोल रहा है…
मैं देवभूमि का जोशीमठ हूँ,
आज चाहता हूँ बोलना मगर विवश हूँ,

यूँ तो मैं चूप ही रहा हूँ सदियों से,
मगर आज गला भर आया है कुछ कमीयों से,

भले मैं चूप हूँ आज,
मगर मुझमे पडी़ दरारें बोल रही है,

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