उत्तराखंड

पर्यावरण और वायु प्रदूषण से होता बुरा हाल।

  • पर्यावरण तथा वायु प्रदूषण से होता बुरा हाल।
  • शहरी नागरिक फेफड़ों की तकलीफ से हलाकान।

संपादकीय 

बड़े मेट्रोपॉलिटन शहरों जैसे दिल्ली,मुंबई,कोलकाता, बेंगलुरु, चेन्नई, अहमदाबाद, हैदराबाद जैसे शहरों में पर्यावरण तथा वायु प्रदूषण का स्तर काफी ऊंचा हो गया है। दिल्ली वैसे भी देश और दुनिया का सर्वाधिक प्रदूषित शहर माना जाता है इसके बाद कोलकाता तथा मुंबई का नंबर भी आता है पटना शहर की जनसंख्या एवं घरों की बसाहट अधिक होने से वाहन प्रदूषण की स्थिति अत्यंत कमजोर है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

पर्यावरण संतुलन से आर्थिक, सामाजिक विकास की अवधारणा की भारत जैसे विकासशील देश को नितांत आवश्यकता है। जहां देश के वार्षिक बजट का बड़ा हिस्सा पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने एवं पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने हेतु खर्च किया जाता है।
अपने देश में दिल्ली सर्वाधिक प्रदूषित शहर है, इसके बाद अनेक राज्यों की राजधानियां भी प्रदूषण में एक दूसरे को टक्कर दे रही हैं।

दिल्ली मे तो प्रदूषण बेचारा केंद्र और राज्य की राजनीति का शिकार हो गया है ,दिल्ली प्रशासन और केंद्र शासन एक दूसरे पर पर्यावरण तथा यमुना नदी के प्रदूषण पर आरोप-प्रत्यारोप कर रहे हैं पर प्रदूषण कम करने के उपाय ऊपर हाथ में हाथ धरे बैठे हैं ।अमूमन यही स्थिति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी है।

वर्तमान में वृहद चिंतन की आवश्यकता है कि पर्यावरण संतुलन से आर्थिक, सामाजिक विकास की अवधारणा है कैसे जन्म लेंगी? उसमें गहन चिंतन विभिन्न मानव प्रजातियों के आर्थिक तथा पर्यावरण संतुलन को लेकर भी हैl इस विषय पर एक खुली बहस की आवश्यकता हैl खुली बहस इसलिए भी कि मनुष्य के जीवन के लिए जितना आवश्यक पर्यावरण संतुलन है उतना ही आवश्यक उसका आर्थिक विकास भी है।

अब ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते खतरे को देखकर पर्यावरण संतुलन को आर्थिक विकास के साथ जोड़ा जाना अत्यंत महत्वपूर्ण एवं मानवीय जीवन की सुरक्षा के लिए आवश्यक हैl बढ़ते असमान आर्थिक विकास तथा उपभोक्तावादी प्रकृति ने जहां सामाजिक विभेद की दरार को चौड़ा कर दिया है वही विश्व स्तर पर विस्तारवाद तथा उपनिवेशवाद को बढ़ावा भी मिला है।

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राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भेदभाव के इस बड़े स्तर को आर्थिक विकास तथा पर्यावरण संतुलन को प्राथमिकता देना नदी के दो अलग किनारों को जोड़ने जैसा ही है। विकास की दौड़ में जहां मनुष्य जीवन के इस व्यस्तता में थककर वापस प्रकृति की ओर उन्मुख होना चाहता हैl शहरी मनुष्य प्रकृति की शीतलता, हरियाली और खुली स्वच्छंद हवा में सांस लेने के लिए उत्सुक है और कल्पना करता है कि गांव में जीवन कितना सुमधुर और स्वच्छंद आनंदमई है, इसकी दूसरी तरफ ग्रामीण जंगली इलाकों के रहने वाले लोग कल्पना करते हैं कि शहर में कितनी सुविधाएं हैं जो जीवन जीने को एकदम सरल एवं आसान बनाती है। यह द्विपक्षीय लालसा शहर में रहने वाले और ग्रामीण क्षेत्र के निवासियों के बीच बराबर की है, हमें इनके आपसी संतुलन को बनाए रखना और आर्थिक विकास के साथ पर्यावरण संतुलन को भी बढ़ते सोपान के साथ बढ़ावा देना है।

यूरोपीय देशों में कई देशों ने इसके उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, जहां आर्थिक विकास के साथ पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता दी गई हैl इसके लिए हमें उपभोक्तावादी संस्कृति को नियंत्रित कर नागरिकों को पर्यावरण के संतुलन के प्रति जागरूक करना होगाl टेक्नोलॉजी के स्तर पर पर्यावरण अनुकूल साधनों का ऊर्जा स्रोत ग्रीन तकनीक, हरित भवन, कार्बन न्यूट्रल वाहनों की तरफ उनके नियंत्रण पर हमें ध्यान देने की आवश्यकता होगी। वहीं दूसरी तरफ आदिवासियों पर ग्रामीण क्षेत्र के निवासियों को आधुनिक विज्ञान से देसी ज्ञान के साथ शिक्षित भी करने की आवश्यकता होगी।

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पर्यावरण किसी भी परियोजना को स्थापित करने के पूर्व पर्यावरण आकलन करने की आवश्यकता है ही इसके साथ ही समाज में पड़ने वाले प्रभाव को देखने के लिए सामाजिक प्रभाव आकलन को भी मूर्त रूप देना होगा। इस संतुलन को बनाने हेतु भविष्य की नीति बनाने की आवश्यकता होगी साथ ही हमको यह भी समझना होगा कि पर्वतों को मिटाने से नदियों को बांधने व जंगलों को काटने से विकास संभव नहीं हैl पर्यावरण संतुलन और विकास को केवल आर्थिक विकास की श्रेणी में न रखकर समग्र रूप से सामाजिक, पर्यावरणीय संस्कृति के नैतिक रूप से समझने की आवश्यकता होगी।

इस पर्यावरण तथा आर्थिक संतुलन को बनाए रखने के लिए हमें सर्वहारा वर्ग के हर व्यक्ति के लिए जीत सुनिश्चित करनी होगी जिसमें किसी को नुकसान ना हो एवं आम व्यक्ति पीछे ना रह जाए। यह अवधारणा यदि किसी भी समाज देश में व्याप्त होगी तभी आर्थिक विकास का पर्यावरण के साथ संतुलन स्थापित हो सकता है।
इस संदर्भ में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी कहा है “प्रकृति हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिए है व्यक्ति की लालच को पूरा करने के लिए नहीं” निर्दोष, निर्मल प्रकृति के दोहन के साथ ही मनुष्य के समाज ने अत्यधिक शोषण किया है।

प्रकृति के विनाश के साथ आर्थिक विकास लंबे समय तक नहीं चल सकता हैl यह बात जितने जल्दी मनुष्य को, देश और पूरे विश्व समुदाय को जितनी जल्दी समझ में आ जाए उतना ही आर्थिक तथा पर्यावरण के संतुलन के विकास के लिए शुभ संकेत होंगेl आर्थिक विकास के वर्तमान संदर्भ को देखें तो यह बात बड़ी विचित्र किंतु सत्य प्रतीत होती है कि जब एक समुदाय को कुर्बान करने के लिए दूसरे समुदाय को लाभ पहुंचाया जाता है।

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आर्थिक विकास के लिए योजनाएं कहीं बनती हैं, विस्थापित लोग कहीं और होते हैं और बिजली और अन्य सुविधाएं किसी अन्य जगह से आती है, जिसके परिणाम स्वरूप आर्थिक और पर्यावरण के संतुलन में अनेक विसंगतियां जन्म लेती हैं, और इससे सामाजिक आर्थिक संतुलन भी बिगड़ने की संभावना बलवती होती हैl मनुष्य की स्पृहा, कामना और लालच के सामने प्रकृति भी निरुत्तर होती दिखाई दे रही है।

प्रकृति के समर्पण में जो विसंगतियां और दुष्प्रभाव हमारे सामने आ रहे हैं उनमें जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, बढ़ते ओजोन छिद्र ,बढ़ता जलवायु परिवर्तन, पिघलते ग्लेशियर तथा बढ़ता समुद्री जल हम सबके लिए नई समस्याओं को जन्म देने का काम कर रहे हैंl आपको ऐसा नहीं लगता कि हमारे प्रकृति विरोधी कर्मों से हमारे जीवन का अस्तित्व ही खतरे में आने लगा है।

इसी तरह के अनेक आसन में खतरों से निपटने के लिए आर्थिक विकास के नए मॉडलों को पर्यावरण के संतुलन के साथ जोड़ने का विकल्प हम सबके लिए एक जीवन उपयोगी मार्ग बनता नजर आ रहा हैl प्रकृति के असंतुलन दोहन का सर्वोत्तम उदाहरण यूरोप के विकसित देश है जिनकी पर्यावरण असंतुलन के प्रति उदासीनता की भयावह कीमत विकासशील तथा समुद्री क्षेत्रों में सीमावर्ती तथा अल्प विकसित देशों को चुकानी पड़ रही है।

हमें वैश्विक स्तर पर आर्थिक विकास को पर्यावरण संतुलन बनाने की दिशा में सामूहिक रूप से कारगर उपाय खोज कर संपूर्ण विश्व को ग्लोबल वार्मिंग और इसके गहरे परिणामों से सुरक्षित रखना होगा, विशेषकर उन अल्प विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों को जिनकी जनसंख्या अग्रणी देशों में गिनी जाती है. पर्यावरण संतुलन तथा आर्थिक विकास के ढांचे को विकसित करने के लिए पर्याप्त आर्थिक संसाधन उपलब्ध नहीं है।

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